Tuesday, August 13, 2013

रंगमंच का एक सार्थक गढ़ - डोंगरगढ़

ऐसा दिखता है डोंगडगढ़ 
“हमें हिम्मत नहीं हारनी है. काम करते रहना है और बढ़ते रहना है, लेकिन खराब नाटक नहीं करना है, खराब गाने नहीं गाना है. लगातार नई चीज़ों को, नए लोगों को रंगमंच से जोड़ना है.” – ए के हंगल.

चारों ओर से छोटी-छोटी पहाड़ियों और हर पहाड़ी पर विराजमान देवी-देवताओं और गुरुओं के आश्रमों के क़ानूनी व गैर-क़ानूनी कब्ज़ों से घिरा छत्तीसगढ़ का एक छोटा सा क़स्बा है डोंगरगढ़. यह घोषित रूप से एक धार्मिक नगरी है जहाँ शराबखोरी पर पूर्णतः प्रतिबन्ध है. इस छोटे से कस्बे में जन सवालों से सरोकार रखता हुआ रंगमंच का अपना ही एक इतिहास है यह जानना किसी भी कलाप्रेमी के लिए अपने आपमें एक सुखद अनुभूति देता है. जिस प्रकार भारत का दिल गाँव में बस्ता है ठीक उसी प्रकार सच्चा रंगमंच तमाम ग्रांटों, एनजीओ छाप रंगमंच से दूरी बनाये रंगमंच में ही धडकता है. रंगमंच पेशा से ज़्यादा पैशन है. ‘हम इसके बिना नहीं रह सकते’ यह कथन है इप्टा के डोंगरगढ़ इकाई के एक सदस्य का.
“जनता के रंगमंच की असली नायक जनता है” इस सूत्रवाक्य एवं सुप्रसिद्ध चित्रकार चित्तप्रसाद की कृति ‘नगाडावादक’ से सुसाज्जित इप्टा का गठन 25 मई 1943 को हुआ था. इप्टा यानि इंडियन पीपुल्स थियेटर एशोसिएशन (भारतीय जन नाट्य संघ), यह नामकरण करने का श्रेय विश्वविख्यात वैज्ञानिक होमी जहांगीर भाभा के नाम है. सामाजिक सरोकार से जुड़े तमाम कलाकारों को एक मंच प्रदान करना इप्टा के मूल मकसदों में से एक है. समय के साथ कई उतार चढाव का दौर आया फिर भी आज पुरे देश में इप्टा की लगभग 600 इकाइयां कार्यरत हैं, जो अपने-आपमें एक विश्व कीर्तिमान माना जाना चाहिए.
“कला कला के लिए हो सकती है. मगर हम केवल ‘थियेटर’ नहीं करते, ‘मूवमेंट’ करते हैं और इसलिए यह ज़रुरी हो जाता है कि आज के समय के सबसे बड़े शत्रु के विरुद्द धर्मयुद्ध को ज़रिया बनायें और असल ज़िंदगी में जबरन सूत्रधार की भूमिका अपनाकर बैठे हुए विदूषकों को मंच से उठाकर बाहर फेंक दें. प्रत्यक्ष शत्रु से लड़ना आसान होता है, लेकिन लड़ाई तब मुश्किल हो जाती है जब दुश्मन की पहचान का संकट हो. वे हमारे ही भेष में होते हैं और कब-कैसे वार करेंगें इसका कोई अंदाज़ा नहीं होता.” – ये चंद पंक्तियाँ हैं डोंगरगढ़, इप्टा के रजत जयंती समारोह के अवसर पर आयोजित प्रांतीय सम्मलेन के स्मारिका के. उपरोक्त बातों से गुज़रते ही इस संस्था का उद्देश्य की एक स्पष्ट झलक मिलाने लगती है.
मानवीय सरोकारों के प्रति समर्पित डोंगरगढ़ इप्टा के सफ़र की शुरुआत सन 1983 में स्व. चुन्नीलाल डोंगरे के नेतृत्व में हुई. तब से लेकर अब तक लगातार सक्रिय इस जनवादी नाट्य दल ने कई प्रमुख नुक्कड़ तथा मंच नाटकों का प्रदर्शन अपने सीमित संसाधनों के बावजूद सफलतापूर्वक संपन्न किये. जिसमें मुर्गीवाला, विरोध, महंगाई की मार, सड़क पर गड्ढा, सदाचार का तावीज़, तलाश, सबसे सस्ता गोश्त, अंधेर नगरी चौपट राजा, जमराज का भांटो, देश आगे बढाओ, रेल का खेल, मशीन, अंधे-काने, जनता पागल हो गई है, घर कहाँ है, रोटी नाम सत्य है, ठाढ़ द्वारे नंगा, जंगीराम की हवेली, इंस्पेक्टर मातादीन चाँद पर, किस्सा कल्पनापुर का, प्लेटफार्म नम्बर चार, राजा का बजा, चार बहरे, अकड गयो, अभिशाप, अनपढ़ के फजीता, शहर के बोली, अंते तंते आदि नाटक प्रमुख हैं. वहीं समय-समय पर स्मारिकाओं का प्रकाशन भी होता रहा. जनगीतों के कुछ ऑडियो सीडी भी संगीतकार व गायक मनोज गुप्ता के निर्देशन में निकाला गया.
मनोज गुप्ता द्वारा संगीतबद्ध किये और गए जनगीतों को सुनकर एवं संगीत तैयार करते समय उनके द्वारा अपनाये क्राफ्ट को समझकर उनकी प्रतिभा का आभास अपने-आप ही मिलता है. परम्परा और प्रयोग का उचित मिश्रण से लबरेज़ इनका संगीत सुनाने के बाद यह विश्वास और प्रखर हो जाता है कि भारतीय रंग संगीत का दायरा केवल चंद गिने-चुने प्रसिद्द नामों तक ही सीमित नहीं है बल्कि शहर-शहर और गाँव-गाँव में फैला हुआ है. प्रसिद्धि, प्रतिभा का मोहताज़ हो सकती है किन्तु प्रतिभा प्रसिद्धि की मोहताज़ हो यह ज़रुरी नहीं.
वर्तमान में डोंगरगढ़ इप्टा का कार्यभार मूलतः तीन व्यक्तियों के कंधों पर है. राधेश्याम तराने (अभिनेता, निर्देशक), मनोज गुप्ता (गायक, संगीत निर्देशक) एवं दिनेश चौधरी (अध्यक्ष, इप्टा, डोंगरगढ़). दिनेश चौधरी अपनी नौकरी से वीआरएस ले चुके हैं और पुरी तरह इप्टा के समर्पित हैं. बाकि दोनों नौकरी करते हुए रंगमंच की गाड़ी लगभग पिछले तीन दशक से अनवरत चला रहे हैं. इप्टा के बाकि सदस्य दिन भर जीवनयापन के लिए काम-धाम करते हैं और शाम को नाटक. इस दौरान इन्होनें बतौर कलाकार अच्छे-बुरे सारे दिन देखे पर कभी अपने अंदर की कला और कलाकार को स्थिर नहीं बैठने दिया. परिस्थिति चाहे जैसी हो लगातार सक्रियता ही इनके कला जीवन का मूल मन्त्र है. इन्हें कोई मलाल नहीं कि ‘तथाकथित’ मुख्यधारा तथा सरकारी रंगमंच में इनके नाम का जाप नहीं होता या ग्रांट पानेवाले रंगकर्मियों की लिस्टों में इनका नाम शामिल नही है. दर्शकों का स्नेह और उनके प्रति ज़िम्मेदारी ही इनकी सबसे बड़ी दौलत और इनके कला का मूल उद्देश्य है. देखनेवाले के चहरे पर संतुष्टि के भाव मात्र से ही इनकी कला सार्थक हो जाती है. ये दर्शकों का मनोरंजन नहीं बल्कि सार्थक और अर्थवान मनोरंजन करते हैं. वे अपनी कला के माध्यम से जनता के बीच सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक आदि हस्तक्षेप प्रस्तुत करते हैं जिसके जनता का मनोरंजन मात्र नहीं होता बल्कि उसकी सांस्कृतिक चेतना का भी विकास होता है.
डोंगडगढ़ का रंगमंच पुरी तरह से जनसहयोग से चलता है. हर साल यहाँ एक राष्ट्रीय स्तर का नाट्य समारोह का आयोजन किया जाता है. पुरे शहर में कोई उपयुक्त प्रेक्षागृह न होने के कारण इसका आयोजन बमलेश्वरी मंदिर प्रांगण में किया जाता है. नाटक करने के लिए यह प्रागंण इन्हें लगभग निःशुल्क मिल जाता है. जहाँ इन्हें मंच, टेंट, कुर्सियां, लाईट, साउंड आदि की व्यवस्था करनी पड़ती है. साउंड सिस्टम नजदीकी जिले से तथा लाइट भिलाई से आता है. टेंट और कुसियाँ लगाने का ज़िम्मा राधेकृष्ण कन्नौजिया का होता है जो खुद टेंट का काम करके जीविका चलाते हैं और इप्टा के सदस्य भी हैं, सो इस काम के लिए वो इप्टा से कोई पैसा नहीं लेते. बाहर से आनेवाली नाट्य दल लगभग समान्तर सोच की होती है इसलिए मूलभूत सुविधाओं में भी हर साल यहाँ अपने नाटकों का प्रदर्शन करना इनकी दिली चाहत होती है, जिसका मूल कारण है यहाँ के आयोजकों और दर्शकों का अपार स्नेह. आयोजन का खर्च जनता के बीच जाकर चंदे से इकठ्ठा किया जाता है.
छोटे शहरों में सब एक दूसरे को जानते हैं और यहाँ रिश्ते जीवंत होते हैं किन्तु समय की चुनौतियों का सामना सबको करना पड़ाता. कभी लंबी सक्रिय सदस्यों की सूचि अपने पास रखनेवाली डोंगडगढ़ इप्टा के सक्रिए सदस्यों की संख्या आज उतनी नहीं है कि गौरवान्वित हुआ जा सके. कुछ पुराने और अति-सक्रिय सदस्यों का निधन हो चुका है, कुछ रंगमंच के प्रति अपार स्नेह रखते हुए भी दाल-रोटी के जुगाड़ में लग जाने को अभिशप्त हो गए, तो कुछ का रंगमंच से मोह भंग भी हुआ. रंगमंच और समाज आज भी रंगकर्मियों को सिवाय तालियों के कुछ और देने की स्थिति में नहीं हैं. तालियों से मन की भूख तो मिट जाती है पर तन की नहीं. फिल्म, क्रिकेट, शराब आदि के लिए ये समाज अपना जेब आराम से खाली करता है किन्तु रंगमंच के लिए भी जेब खाली करनी चाहिए ऐसी सोच अभी-तक हिंदी समाज में पैदा नहीं हो पाया है.
तमाम तरह के रुकावटों को चुनौती के रूप में स्वीकार करते हुए डोंगडगढ़ इप्टा ने नए-नए रास्ते तलाशने शुरू किये हैं और अपने साथ नए-नए सदस्यों को जोडने की प्रक्रिया भी शुरू की है. साथ ही इन नए सदस्यों के प्रशिक्षण के लिए बाहर से भी किसी प्रशिक्षक को बुलाना शुरू किया है. इसके लिए ये हर साल गर्मी की छुट्टियों में “बाल नाट्य कार्यशाला” का आयोजन करते हैं. जिसमें नाटक के विभिन्न आयामों के व्यावहारिक प्रशिक्षण के साथ ही साथ पेंटिंग आदि की प्रतियोगिता भी आयोजित की जाती है. इस वर्ष यह कार्यशाला 31 मई से आयोजित की गई. जिसका समापन 15 जून को कार्यशाला में तैयार किये नाटक - हम हैं कौए (निर्देशक – अपर्णा), इत्यादि (राजेश जोशी की कविता पर आधारित प्रायोगिक नाट्य प्रस्तुति) एवं अंघेर नगरी चौपट राजा (लेखक - भारतेंदु हरिश्चंद्र) के साथ ही साथ मनोज गुप्ता के संगीत निर्देशन में तैयार जनगीतों के गायन से हुआ. आयोजन के दिन सुबह से ही बर्षा हो रही थी और उस दिन भारत-पाक क्रिकेट मैच भी था फिर भी न अभिनेताओं में उत्साह में कोई कमी थी ना ही दर्शकों में और ना ही आयोजकों में. उपरोक्त कार्यशाला में 3 से 15 साल के कुल लगभग एक सौ बच्चों ने भागीदारी की थी. इनमें से कुछ बच्चों का रंगमंच के प्रति उत्साह देखकर यह सहज ही समझ आता था कि यदि इन्हें अभी से रंगमंच की विधिवत प्रशिक्षण मिले और ये लगातार सक्रिय रहे तो आनेवाले दिनों में इन्हें बेहतर रंगकर्मीं के रूप में विकसित किया जा सकता है.   
गत दिनों डोंगडगढ़ से ही दिनेश चौधरी के संपादन में रंगमच पर केंद्रित ‘इप्टानामा’ नामक 248 पृष्ठों की पत्रिका का प्रकाशन भी हुआ है.

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