Saturday, December 7, 2013

इप्टानामा : हमें थोड़े लोगों का विशिष्ट रंगमंच नहीं चाहिए.

विगत दिनों मुकेश बिजौल (आवरण), रोहित रूसिय, पंकज दीक्षित के रेखाचित्रों से सुसज्जित रंगमंच पर केंद्रित पत्रिका ‘इप्टानामा’ (भारतीय जन नाट्य संघ की वेब-पत्रिका का प्रथम वार्षिकांक) का प्रकाशन हुआ. पत्रिका का सम्पादन अविनाश गुप्ता व अपर्णा के सहयोग से दिनेश चौधरी ने किया है. यह इप्टा के 70 साल पूरा होने का एक उपक्रम भी है. पत्रिका के केन्द्र में आम-जन से सरोकार रखकर किया जानेवाला रंगमंच हैं, जहाँ प्रोफेशनल होने का मतलब केवल आर्थिक नहीं हुआ करता है और उत्सवधर्मिता के नाम पर विचारों की बलि नहीं चढाई जाती. रंगमंच पर सदियों से ‘प्रवचन’ देते आ रहे तथाकथित मुख्यधारा के रंगमंच के महर्षि इस पत्रिका से नदारत हैं, यह ‘इप्टानामा’ की सार्थकता है और यही बात इसे रंगमंच की अन्य पत्रिकाओं से अलग भी करती है. ऐसी पत्रिकाएं सौंदर्य की दृष्टी से अमूमन काबिलेतारीफ नहीं होती हैं किन्तु ‘इप्टानामा’ इस मिथ का अपवाद है. भगवत रावत (वे इसी पृथ्वी पर हैं), केदारनाथ सिंह (बिना दुभाषिये के), गोरख पाण्डेय (कला, कला के लिए), विनोद दास (मे आई कम इन सर), स्वप्निल श्रीवास्तव (हत्या एक कला की), अली सरदार जाफरी (खूनी सरमाये का निवाला), कैफ़ी आज़मी (मकान), नरेश सक्सेना, आत्मा रंजन, धूमिल, विष्णु नागर आदि की कविता पोस्टरों व कविताओं से ‘इप्टानामा’ को बखूबी सुसाज्जित किया गया है. 
पत्रिका में प्रमुखता से प्रकाशित ‘अन्तर्राष्ट्रीय रंगमंच दिवस 2013 के अपने सन्देश में इटली के व्यंगकार, नाटककार, नाट्य-निर्देशक, संगीतकार, अभिनेता, नोबल पुरस्कार विजेता दरियो फ़ो तमाम ज़ोर ज़बरदस्ती के खिलाफ़ आवाज़ बुंलद करने के आह्वान के साथ कह्तें हैं “बहुत समय पहले सत्ता ने कामेडिया दे लार्ट के अभिनेताओं को देश से बाहर कर उसके विरुद्ध अपनी असहिष्णुता को संतुष्ट किया. आज ऐसे ही संकट के कारण अभिनेताओं और थियेटर कंपनियों के लिए सार्वजनिक मंचों, प्रेक्षागृहों और दर्शकों तक पहुंचना कठिन हो गया है. शासकों को अब उन लोगों से कोई समस्या नहीं, जो विडंबना और व्यंग की अभिव्यक्ति करते हैं क्योंकि न तो अभिनेता के लिए कोई मंच है और ना ही दर्शक, जिसे संबोधित किया जा सके.” रंगमंच की ताकत फ़ो इन पंक्तियों में व्यक्त करते हैं – आँखे जो देखती हैं, वह इन किताबों में पढ़ेजाने की तुलना में कहीं अधिक गहराई से आत्मा को प्रभावित करता है.” वहीं अन्तर्राष्ट्रीय नृत्य दिवस 2013 के अपने सन्देश में ताइवान के विश्वविख्यात नृत्य प्रशिक्षक लिन व्हाई मिन कहतें हैं – “नृत्य एक शसक्त अभिव्यक्ति है, जो धरती और आकाश से संवाद करती है. हमारी खुशी, भय और आकांशाओं को व्यक्त करती है. नृत्य अमूर्त है, फिर भी जन के मन के संज्ञान और बोध को परिलक्षित करता है, मनोदशा को और चरित्र को दर्शाता है. आज के डिजिटल युग में, भाव-भंगिमाओं को छवियां लाखों रूप लेती हैं. वो आकर्षक होती हैं. परन्तु ये नृत्य का स्थान नहीं ले सकती क्योंकि छवियां साँस नहीं लेतीं. नृत्य जीवन का उत्सव है. आईये अपने टेलीविजन बंद कीजिये. कंप्यूटर शटडाउन कीजिये और नृत्य करने आईये. अपने आपको उस श्रेष्ट और सुन्दर वाद्य के माध्यम से अभिव्यक्त करिये, जो हमारा शरीर है.इन दोनों आलेखों का हिंदी अनुवाद अखिलेश दीक्षित ने किया है.
सम्पादकीय आलेख में सम्पादक दिनेश चौधरी चिंता ज़ाहिर करते कि “अनेकानेक कारणों से थियेटर करना अब मुश्किल होता जा रहा है. अब राज्याश्रय केवल उन्हीं कलारूपों के लिए सहज हासिल है जो बाज़ारवादी व नवउदारवादी व्यवस्था के पोषण में निर्लज्ज सहमति प्रदान करते हों. इसके विपरीत प्रतिबद्द-शौकिया रंगमंच करनेवालों के लिए स्पेस छीनता जा रहा है और नुक्कड़ नाटक जैसे मारक विधा को सरकारी योजनाओं व गैर-सरकारी संगठनों ने हाइजैक कर लिया है. नाटकों को प्रतिबंधित व रंगकर्मियों को जेल भेजने का सिलसिला भी चल पड़ा है. यानी, किसी न किसी रूप में अपने शहर को थियेटर मुक्त करने की प्रक्रिया जारी है.”
दस्तावेज़ कॉलम के अंतर्गत कुल तीन लेख प्रकाशित हैं. इप्टा के पचास साल पुरे होने के उपलक्ष्य पर कैफी आजमी द्वारा दिए वक्तव्य को लेख की शक्ल में प्रकाशित किया गया है. कैफी आजमी उस वक्त इप्टा के राष्ट्रीय अध्यक्ष थे, अपने इस वक्तव्य में वे उस वक्त के चुनौतियों के प्रति सजग और इप्टा को और ज़्यादा सरगर्म बनाने की वकालत करते हुए कहते हैं – “किसी भी थियेटर के लिए अहम् दिन वह होता है जिस दिन वह बामकसद और ख़ूबसूरत नाटक खेलने में कामयाबी हासिल करे.”  अगला आलेख रामविलास शर्मा के इप्टा, आगरा से जुड़ाव और उनकी रंग-गतिविधियों के बारे में हैं जिसे कलामबद्द किया है इप्टा से संस्थापक सदस्य राजेन्द्र रघुवंशी जी का है, प्रस्तुति सचिन श्रीवास्तव की है. सन 1955 में प्रकाशित बलराज साहनी का सिनेमा और नाटक शीर्षक आलेख भी यहाँ संलग्न है.
समाज और संस्कृति कॉलम के तहत कुल तीन आलेख हैं. रनबीर सिंह का आलेख अंग्रेज़ी में है ‘कल्चर इन्स्योर्स यूनिटी एंड स्टेबलिटी आफ सोसाइटी’ तथा जयप्रकाश का ‘नव ओपनिवेशिक अतिक्रमण का सांस्कृतिक प्रोजेक्ट’ शीर्षक से प्रकाशित आलेख के केन्द्र में जयपुर साहित्य उत्सव 2012 है. वो सुबह कभी तो आएगी की घोषणा के तहत ज्ञानोदय से बाज़ारोदय नामक अपने बेहतरीन आलेख में अजय आठले छत्तीसगढ़ी संस्कृति के बहाने कला, समाज, विस्थापन, विकास, बाज़ारवाद, शहरीकरण आदि की बात करते हुए कहतें हैं कि “विजेता की संस्कृति हमेशा हावी रहती है, ऐसी बात नहीं है. वह विजित की संस्कृति से पहले टकराती है, फिर घुलमिलकर नया रूप धारण करती है.”
आमने-सामने कॉलम के तहत दो साक्षात्कारों का प्रकाशन किया गया है. वरिष्ट कवि व नाटककार राजेश जोशी का साक्षात्कार हरिओम राजोरिया, बसंत सकरगाय व सचिन श्रीवास्तव तथा इप्टा के महासचिव जितेन्द्र रघुवंशी का साक्षात्कार सचिन श्रीवास्तव ने किया है. दोनों ही साक्षात्कार में जनपक्षीय रंगकर्म के व्यावहारिक-सैधांतिक पहलुओं पर बातें की गई है. राजेश जोशी कहतें हैं “अब कारपोरेट हाउस और सरकार यह बता रही है कि कैसा नाटक करें. अब थियेटर सजावटी सा हो गया है. इसमें न कोई सोशल मैसेज है, न पॉलिटिकल. ऐसे नाटक होने लगे हैं जो किसी के लिए असुविधा पैदा नहीं करते. ग्रांट लेकर थियेटर करनेवाले समूह से तो उम्मीद करना बेकार है. नाटक ऐसी विधा नहीं है कि इसे सरकारें कंट्रोल कर सकें.” अपने विस्तृत साक्षात्कार में जितेन्द्र रघुवंशी ज़मीनी स्तर पर रंगमंच के विस्तार को ज़ोर देते हुए कहतें हैं कि “थियेटर करना ज़्यादा मुश्किल होता जाएगा. रंगकर्मियों को अपनी आजीविका के प्रति सावधान रहना होगा.” नुक्कड़ नाटकों के संदर्भ में वे कहते हैं कि “आज इसका मुहाबरा बड़ा ही राटा-रटाया और स्टीरियोटाइप हो गया है, नए ढंग से बात करने की ज़रूरत है. रंग आंदोलनों को तो पॉपुलर कल्चर में भी हस्तक्षेप करना चाहिए. विचार और कला दोनों का प्रशिक्षण ज़रुरी है. सारा थियेटर क्रांतिकारी या सामाजिक हो जायेगा, इसकी उम्मीद बेमानी है. सभी तरह के फूल खिलें. लेकिन देश की बहुसंख्य गरीब जनता को संबोधित रंगमंच विकसित करना ज़रुरी है. वह रंगमंच जो सिर्फ आनंद ही न दे, बल्कि सोचने के लिए बाध्य करे. हमें थोड़े लोगों का विशिष्ट रंगमंच नहीं चाहिए.”
रंगकर्म और मिडिया विषय पर कुल दो आलेख और एक रिपोर्टिंग है; रंगमंच और मिडिया : विकास की उल्टी प्रक्रिया, रंगकर्म को अपनी आलोचना खुद गढ़नी होगी (संजय पराते) और हमें उनसे वफ़ा की है उम्मीद (रिपोर्ट – दिनेश चौधरी). इन तीनों को मिलाकर जो मूल स्वर उभरकर सामने आता है वो यह कि “मिडिया की चाहे जितनी भी आलोचना क्यों न की जाय, उसका सम्मोहन अपनी ओर खींचता ही है. आज मिडिया में रंगमंच को जो जगह मिल रही है वह समीक्षा नहीं मात्र रिपोर्टिंग है, जिसका आधार नाटक के ब्रोशर्स हैं. रंगमंच की खबरनवीसी, आलोचना, समीक्षा एक ऐतिहास महत्व का काम है. किन्तु एक ख़ास किस्म की मृगतृष्णा और हड़बड़ी की चपेट में आज रंगकर्मी, नाटककार, आलोचक सब हैं. रंगमंच अपने-आपमें एक मिडिया है इसलिए इसे अपनी आलोचना खुद गढनी चाहिए.”
संगे-मील कॉलम के तहत कुल पांच आलेख हैं. ‘अच्छा इंसान ही बन सकता है अच्छा कलाकार’ शीर्षक के तहत रमेश राजहंस अदाकार एके हंगल से जुड़ी ज्ञानवर्धक यादों को साझा कर रहें हैं. एक वाक्या कुछ यूं है : “हंगल का मार्क्सवादी सिधान्तों पर अटूट आस्था थी, किन्तु वह कभी इसे दूसरों पर थोपने की कोशिश नहीं करते थे. उनके मित्र मज़ाक में कहते कि कम्यूनिस्टों को दुनियां बदलना है, अब आप ऐसे पैसिव रहेंगें, तो दुनियां कैसे बदलेगी सर !” हंगल साहेब का जवाब होता – “देखो जी, घोड़े को घास के पास ले जाया जा सकता है, ज़बरदस्ती खिलाया नहीं जा सकता.” चित्रकार व सामाजिक कार्यकर्त्ता चित्तप्रसाद को याद करते हुए अशोक भौमिक, बलराज साहनी को श्रद्धान्जली देता हुआ रश्मी दोरास्वामी, फोटोग्राफर सुनील जाना पर आधारित विनीत तिवारी एवं लेखक, नाटककार, अभिनेता कामतानाथ पर लिखा राकेश का आलेख पत्रिका की धरोहर है. इनके साथ ही साथ जन्मशती वर्ष के अवसर पर हरीन्द्रनाथ चट्टोपाध्याय, विष्णु प्रभाकर, मख्दूम मोहिउद्दीन, मंटो, के.के.हैब्बार, अली सरदार जाफरी, असरार-उल-हक ‘मजाज’, हेमांग बिस्वास, अशोक कुमार, उपेन्द्रनाथ अश्क, प. नरेंद्र शर्मा का संक्षिप्त परिचय भी संलग्न है.
अनुदान और आयोजन कॉलम के तहत कुल दो आलेख हैं, उषा वैरागकर आठले का नाट्य समारोह और सांस्कृतिक राजनीति हनुमंत किशोर का रंगमंच का मरण उत्सव. दोनों आलेख वर्तमान में चल रहे नाट्य समारोहों व अनुदान रुपी अनुष्ठानों की पड़ताल करते हुए सत्ता की वर्चस्ववादी व चाटुकारितापूर्ण उस सांस्कृतिक राजनीति की पड़ताल करती है जो रंगमंच से जनपक्षीय विचार को ख़ारिज कर एक ‘खास’ प्रकार की मानसिकता पूरी बेशर्मी से थोप रही है. इन दोनों आलेखों में कुछ भ्रामक तथ्य हैं जिस पर ध्यान दिया जाना चाहिए था.
विविधा कॉलम के तहत प्रकाशित शकील सिद्धीकी का आलेख ‘एक आग जो जलती है’ अभी को एक तरह से भारतीय प्रगतिशील लेखक आंदोलन के उतार-चढाव का लेखा-जोखा कहा जा सकता है. अपने इस आलेख में शकील लिखतें हैं “एक हथौड़े वाले से कई हथौड़े वाले फौलादी हाथों वाले होते चले जाने के बावजूद पूंजीवाद का कुछ नहीं बिगड़ा. कई दिनों बाद घर में दाने आने की दारुन स्थिति अब भी शेष है. वाम दिशा विहान दिशा हो आई है. बावजूद इसके यह नहीं कहा जा सकता कि भोर का स्वपन अपना समूचा सम्मोहन खो चुका है. जो आग 1936 (प्रलेस का पहला अधिवेशन) में रौशन हुई थी, उसकी आंच कम हुई है पर वह बुझी नहीं है.” प्रबीर गुहा अपने आलेख को ‘मैं और मेरा रंगमंच’ तक ही सीमित रखते हैं. अभिनेत्री ज़ोहरा सहगल की आत्मकथा करीब से पर नासिर अहमद सिकंदर की टिपण्णी व आत्मकथा का एक अंश भी प्रकाशित किया गया है.
नाट्यलेख कॉलम के तहत नाटक ‘अरण्य-गाथा’ प्रकाशित है. प्रेम साइमन लिखित यह नाटक एक ही साथ बहुत सारी विषयों को छू लेने, कथ्य-शिल्प के स्तर पर ढेर सारे प्रयोग कर देने की हड़बड़ी का शिकार है. यहाँ संस्कृत नाटकों से नुक्कड़ नाटक तक की तीब्र यात्रा है. वहीं ऐसे धार्मिक प्रतीकों का भी प्रयोग है जिनकी आज भी भारतीय जनमानस में अपनी एक ‘खास’ पहचान है. ऐसे प्रतीकों को लेकर आधुनिक नाटक रचा जा सकता है किन्तु जो सावधानी यहाँ बरती जानी चाहिए थी, वो गायब है. शायद इसिलिय यह नाटक सब कुछ कहने की पीड़ा से ग्रस्त होकर अन्तः यथास्थितिवाद का ही पोषक बन जाता है. नायक (राम) को जनता को कोई प्रतिकार नहीं दिखता और अन्तः “अभागों, उठो, जागो, साहस करो” जैसे निरा बौधिक और स्टीरियोटाइप प्रलाप करके नाटक समाप्त हो जाता है. विकल्पहीनता व जबरन का विकल्प, दोनों ही प्रकार की प्रवृति खतरनाक है.
‘इप्टानामा’ में कुछ आलेख अंग्रेज़ी में हैं. बहुभासिये पत्रिका का अपना एक महत्व हो सकता है किन्तु पत्रिका किसी एक भाषा में ही निकले तो ज़्यादा सहज है. कुल 250 पृष्ठों की यह पत्रिका संग्रहणीय है. इस तरह की पत्रिकाओं की आज सख्त ज़रूरत है. यदि चुनौती स्वीकार की जाय तो इप्टा जैसे संगठन, जिसकी पुरे देश में लगभग 600 इकाइयां हैं, के लिए इस पत्रिका को एक निरंतरता प्रदान करना कोई मुश्किल काम भी नहीं है. रंगमंच पर गंभीर चिंतन, लेखन, दस्तावेज़ीकरण आदि भी एक महत्वपूर्ण काम है, जिसे अब तक हम (लगभग) अनदेखा करते आए हैं. 
इप्टानामा, सहयोग राशि : 50 रूपये. सम्पादक : दिनेश चौधरी. प्रकाशक : इप्टा के लिए विकल्प, डोंगडगढ़ (छत्तीसगढ़). संपर्क : iptaindia@gmail.com.

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