Monday, November 13, 2017

रिबन : एक अनछुआ प्रयास

हिंदी सिनेमा की मूल समस्या कथ्य की है। यहां अमूमन वही घिसा पीटा फॉर्मूला थोड़े फेर बदल के साथ चलता/बनता है और अमूमन फिल्में उसके आस पास गोल-गोल चक्कर काटती रहती हैं; जबकि भारत में इतने किस्से कहानियां हैं और इतना घटनाप्रधान देश है कि लाखों फिल्में बने तो भी कहानी का ख़जाना ख़त्म ना हो कभी; और रही सही कसर स्टार कल्चर ने पूरी कर दी है। वो अमूमन लटके झटकों को ही कलाकारी मनवा बैठे हैं। ऐसे वक्त में किसी भी अनछुए पहलु पर फ़िल्म बनाने की परिकल्पना ही अपने आप में एक साहसिकता भरा क़दम है और रिबन हर प्रकार से एक साहसिक प्रयोग है। यह अलग से बताने की आवश्यकता नहीं है कि "मनोरंजन, मनोरंजन और मनोरंजन" के वाहियात कसौटी ने सिनेमा के दर्शकों का जायका इतना ख़राब कर दिया है कि उसे कोई भी अर्थवान सिनेमा "बोर" करने लगा है। रिबन के साथ भी यदि भारतीय दर्शक यही व्यवहार करें तो आश्चर्यजनक बात नहीं होगी। रिबन की गति मंथर है और फिल्मांकन सादगीपूर्ण तथा रोज़मर्रा के संवाद और संवेदना। ना कोई स्टार कास्ट है और ना ही हीरो-हीरोइन के लटके झटके और आइटम नंबर और ना ही तालीबजाऊ कोई संवाद या दृश्य। फ़िल्म और फिल्मांकन की आत्मा ही यह सादगी और उसके पीछे छोटे-बड़े तनाव है। इसकी कथा बहुआयामी और नवाचार से परिपूर्ण है और नवाचार का स्वागत करने का साहस अभी बहुत ही कम लोगों में है। सिनेमा के "भीड़" दर्शकों में तो बिल्कुल ही नहीं और उनके पास तो एकदम ही नहीं जो रोज़ एक प्रकार की चीज़ें देखने, सुनने और महसूस करने में सहज महसूस करते हैं। इसलिए ऐसी फिल्में "भीड़" के स्नेह से वंचित रहती हैं और वो अपना लागत भी बड़ी मुश्किल से निकाल पातीं हैं। वैसे भी कुछ कला भीड़ को संबोधित करती है तो कुछ इंसान के दिल, दिमाग और संवेदनाओं को कुरेदने का कार्य करती हैं। रिबन आपसे दिल, दिमाग, संवेदनशीलता और इत्मिनान की मांग करती है। यह हाजमोला नहीं कि मुंह में डाला, चटखारा लगाया और गैस निकाल दिया।
रिबन संयुक्त परिवार के बिघटन, औधोगिकरण और बाज़ारवाद के दवाब में दड़बे जैसे फ्लैट में रहने वाले एक ऐसे कामकाज़ी जोड़े की व्यथा है जिसकी एक बेटी है लेकिन बच्चे की देखभाल करने के लिए भी आया रखना पड़ता है। यहां तमाम भौतिक सुविधाएं खरीदी जाती हैं लेकिन कोई भी ख़ूब जमकर ठहाका लगाता हुआ नहीं दिखता बल्कि यहां बच्चे भी समय से पहले बड़े होते हैं। यहां कुत्ते को डॉग, डॉक्टर को डॉक और मम्मी को मॉम बोला जाता है। यहां ना कोई स्थानीय बोली-भाषा है और नाहीं बच्चों के लिए लोरी और दादी नानी के किस्से, है तो बस शोर करता हुआ मशीन। यहां चैन से फिंगर चिप तक खाने का वक्त नहीं है। 
यह कथा है एक ऐसी स्त्री की जो अपने काम में महारत रखती है किंतु गर्भावस्था के कारण उसे छुट्टी लेनी पड़ती है और जब वो काम पर वापस लौटती है तो मुनाफ़ा मात्र कमाने के लिए चल रहे कारपोरेट ऑफिस में सबकुछ बदल चुका होता है। इन दफ्तरों में ना कोई संवेदनशीलता होती है और ना ही कोई मानवता। ये बस प्रतिभा का दोहन करने के लिए चल रहे मशीन हैं। वैसे समाज कितना संवेदनशील है खासकर स्त्री के सवालों पर? समाज तो रेप के लिए भी स्त्री पर ही दोष मढ़ता है और दुनियाभर के वाहियात सवाल करता है। स्त्री के कार्य, अधिकार और गर्वाधरण को तो आजतक हमने शायद ही वो महत्व दिया है, जो उसे मिलना चाहिए और एक पुरुषप्रधान समाज में यह संभव भी नहीं है - बिल्कुल भी नहीं। रिबन में भी मेल इगो और फीमेल सेंसिबिलिटी का एहसास लगभग हर जगह है - कभी मौन तो कभी मुखर। यहां भौतिकता की तलाश में चिंताग्रस्त नायक, एक पुरुष गुस्से में घर से बाहर निकल जाता है, सड़क पर सिगरेट का धुआं उड़ाते हुए अपनी चिंता का प्रदर्शन करता है, होटल में खाता और कॉफी पीता है लेकिन नायिका, स्त्री अपनी बेटी से चिपककर सोती है। यह इमेजेज बिना शोर किए बहुत कुछ कहतीं हैं बशर्ते उसे देखने समझने की दृष्टि हमारे पास हो। फ़िल्म ऐसी ही इमेजेज से परिपूर्ण है। किन्तु हम एक ऐसे पुरुषप्रधान समाज में जीते हैं जहां गर्भवती पत्नी को घर से निकाल देनेवाले पुरुष को मर्यादापुरुषोत्तम का स्थान प्राप्त होता है और हम चीज़ों को समझने में कम मानने और पूजने में ज़्यादा सहजता महसूस करते हैं और नतीज़ा वहीं गोलचक्कर होता है।
एकल परिवार में बहुत ही कम महिलाएं बच्चा पैदा करने के बाद काम पर वापस लौट पातीं है। एक आंकड़े के अनुसार केवल 34 प्रतिशत। इस फ़िल्म की नायिका भी इसलिए लौट पाती है क्योंकि वो 15 हज़ार रुपए महीने के आया का भार वहन कर सकती हैं। यह कहानी औरत और उसके शरीर पर उसके अधिकार की झलक की कहानी भी है। एकल परिवार में बच्चे की परवरिश की चुनौती की व्यथा है तो बाल शोषण और उस पर सबके (खासकर स्कूल के) पल्ले झाड़ लेने की कथा भी है। वो केवल कागज़ों पर यक़ीन करते हैं और कागज़ (डिग्री) ही बांटते हैं। संवेदनहीनता की हद तब पर हो जाती है जब एक मासूम बच्ची से यह सवाल होता है कि तुम्हें कहाँ कहाँ छुआ गया। फ़िल्म में बहुत कुछ और है, फ़िल्म जितना कुछ कहती है उससे कहीं ज़्यादा चीज़ें नहीं कहती हैं लेकिन यह नहीं कहना ही दरअसल कह देना है बशर्ते कि हमारे पास वह दृष्टि हो कि हम उस अनकहे तक शालिनता से पहुंच सकें। हां नहीं है तो सतही मनोरंजन और ताली बजाऊ लटके झटके और संवाद। यहां मौन है, जिसकी भाषा समझने की संवेदना हम भाग दौड़ के चक्कर में पता नहीं कब की खो चुके हैं। फ़िल्म समाधान का क्षणिक सुख नहीं बेचती बल्कि बड़ी ही शालिनता से सवाल करती है, वो भी बिना जवाब की उम्मीद में, बिल्कुल मध्यवर्गीय मानसिकता की तरह जो जीवन में शायद ही कोई साहसिक फैसला करने की कुब्बत करता है। क्योंकि इस क्लास में भय सबसे ज़्यादा होता है और अमूमन किन्तु-परंतु ही मुखर होकर निकलता है। हम ऐसी कला से बचते हैं क्योंकि यह हमें हमारे ही सामने नंगा करता है और हम बगले झांकने को मजबूर हो जाते हैं। ऐसी चीजों में आंख बचा लेना अब हमारी आदतों में शुमार हो गया है।
यह मूलतः उच्च मध्यवर्ग के जीवन की जद्दोजहद ही सादगीपूर्ण प्रस्तुति की व्यथा है लेकिन फिल्मों में अफ़ीम का नशा जैसा मनोरंजन तलाशनेवालों के पास ऐसे सिनेमा और कला के लिए वक्त कहाँ है? बाकी ज़्यादा बताऊंगा तो सिनेमा का मज़ा किरकिरा हो सकता है हां बस इतना ज़रूर कहूंगा कि हर बार मज़े और मनोरंजन या सिनेमाई आंनद की बात नहीं होनी चाहिए कभी-कभी गंभीरता भी ज़रूरी है क्योंकि कला एक गंभीर विषय है, चुटकुला नहीं। वैसे भी जीवन हमेशा एक ही ताल, लय, गति या संवेदना में संचालित नहीं होता। जीवन बहुरंगीं है और उसी बहुरंगीं के एक रंग की सादगीपूर्ण प्रस्तुति है रिबन।
रिबन की पूरी टीम को बधाई इस साहसिक प्रयास के लिए। बधाई राखी सांडिल्य (निर्देशिका)। ऐसी फ़िल्म कोई स्त्री ही निर्देशित कर सकती है। बधाई एडिटर राजीव उपाध्याय Rajeev Upadhyay. अब बड़े हो गए हो बच्चा तुम। बधाई Shardendu Priyadarshi और Ajit मुझे इस अवसर का साक्षी बनाने के लिए। 
साथ ही निवेदन यह कि बुरे को कोसने के साथ ही साथ बेहतर या कम बेहतर का समर्थन भी आज के वक्त में एक ज़रूरी पहल बन जाती है। तो जाइए, यह फ़िल्म देखिए। शायद कुछ नया देखने का एहसास मिले।

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