सिनेमा की शुरुआत में ही फ़्रान्सीसी दर्शनिक बर्गसन ने कहा था कि "मनुष्य की मष्तिष्क की तरह ही कैमरा काम करता है। मनुष्य की आंखे इस कैमरे की लेंस हैं। आंखों से लिए गए चित्र याद के कक्ष में एकत्रित होते हैं और विचार की लहर इन स्थिर चित्रों को चलायान करती हैं। मेकैनिकल कैमरा और मानवीय मष्तिष्क के कैमरे के बीच आत्मीय तादात्म्य बनने पर महान फ़िल्म बनती है।" तात्पर्य यह कि एक कलाकार को वैचारिक और बौद्धिक स्तर पर भी समृद्ध होना पड़ेगा तभी वो महान कला का सृजन कर सकता है और चार्ली इस कला में माहिर थे। वो एक समृद्ध व्यक्तित्व थे और यह समृध्दि किताबी नहीं बल्कि व्यवहारिक और यथार्थ जगत की कड़वी धरातल से उपजी थी। वो मानवीय चेतना के सच्चे चितेरे थे लेकिन इस अजब-गजब दुनियां की रीत भी निराली है। कलाकार अपना काम कर रहा होता है और दुनियां अपनी ही दुनियादारी में मगन रहती है। जिस चार्ली ने यह कहते हुए दुनियां में केवल खुशी ही बांटी कि "मेरा दर्द किसी के लिए हंसने की वजह हो सकता है, पर मेरी हंसी कभी किसी के दर्द की वजह नहीं बनेगी।" उसी चार्ली की शव उनकी कब्र से तीन महीने बाद ग़ायब हो जाता है और ग़ायब करनेवाले ने उनके शव के कॉफिन लौटाने के लिए 6 लाख स्विस फ्रैंक्स की मांग की। तभी तो चार्ली इस दुनियां को मक्कार और बेरहम कहते हुए कहते हैं - "ये बेरहम दुनिया है और इसका सामना करने के लिए तुम्हे भी बेरहम होना होगा।" ग़ालिब ने भी शायद सही ही कहा है -
बस कि दुश्वार है हर काम का आसां होना
आदमी को भी मयस्सर नहीं इंसां होना
वैसे त्रासदी शायद महान कलाकारों की नियति है। मोज़ार्ट, ग़ालिब, काफ़्का, रिल्के, गुरुदत्त, मीना कुमारी जैसे अनगिनत नाम त्रासदियों के बीच रचनात्मक रहे। खुद चार्ली का जीवन भी तो त्रासदियों का महासागर ही रहा। यह त्रासदी चार्ली की फिल्मों में भी किसी ना किसी रूप में विद्दमान है। पूरी दुनियां अमूमन चार्ली को हास्य के लिए जानती है लेकिन चार्ली ने खुद अपने लिए जो चरित्र गढ़ा वो अभाव और त्रासदी का ही सिनेमेटिक वर्जन नहीं तो और क्या है ? शायद तभी चार्ली यह कहते हैं कि "असल में हंसी का कारण वही चीज़ बनती है जो कभी आपके दुख का कारण होती हैं।" अपने दुःख से लोगों को खुशी पहुंचाना कोई चार्ली से सीखे। वैसे भी जीवन त्रासदी और कॉमेडी का मिला जुला रूप है। चार्ली शायद सच ही कहते हैं - "ज़िंदगी करीब से देखने में एक त्रासदी है और दूर से देखने में कॉमेडी।" यह सूफ़ियाना अंदाज़ है और हर सच्चा कलाकार दिल से सूफी संत ही होता है बाकि कलाकार के नाम पर धधेबाज़ों की भी आज कोई कमी नहीं।
एक सच्चा कलाकार दुनियां में रहते हुए भी दुनियां से अलहदा होता है। उसमें भीड़ में भी अकेले खड़े होने का माद्दा और आदत होती है। वो अपनी कला को प्रथम स्थान पर रखता है ना कि व्यवसाय को। गुरुदत्त के सामने भी साहब बीबी और गुलाम के दौरान फ़िल्म के अंत को बदलने का दवाब था लेकिन गुरुदत्त ने आखिरकार कला के रास्ते को चुना। ऐसे लोग सही-गलत से ज़्यादा सच की परवाह करता है। कलाकार होने की कुछ शर्तें होतीं है। अपनी विश्वप्रसिद्ध पुस्तक "कला की ज़रूरत" में कला मर्मज्ञ अर्न्स्ट फिशर लिखते हैं - "कलाकार होने के लिए अनुभव को पकड़ना, उस पर अधिकार करना, उसे स्मृति में रूपांतरित करना, और स्मृतियों को अभिव्यक्ति में, वस्तु को रूप में रूपांतरित करना आवश्यक है। कलाकार के लिए भावना ही सबकुछ नहीं है, उसके लिए निहायत ज़रूरी है कि वो अपने काम को जाने और उसमें आंनद ले; उन सारे नियमों को समझे, उन तमाम कौशलों, रूपों और परिपाटियों को समझे, जिनसे प्रकृति रूपी चंडिका को वश में किया जा सके। वह आवेग जो कलाप्रेमी को ग्रस लेता है, सच्चे कलाकार की सेवा करता है। कलाकार उस आवेग रूपी वन्य पशु के हाथों क्षत-विक्षत नहीं होता, बल्कि उसे वाश में करके पालतू बनाता है।"
चार्ली का बचपन बड़ा ही कष्टप्रद बीता था। माँ-बाप के होते हुए भी वो अनाथालय में पलने को अभिशप्त थे। माँ-बाप अलग हो चुके थे। मां पागलखाने में भर्ती थी। अमूमन आदमी अपने बचपन को बड़े ही रोमांस के साथ याद करता है लेकिन यदि इस्मत चुग़ताई के शब्दों में कहें तो "बचपन जैसे तैसे बीता। यह कभी पता न चला कि लोग बचपन के बारे में ऐसे सुहाने राग क्यों अलापते हैं। बचपन नाम है बहुत सी मजबूरियों का, महरुमियों का।" (इस्मत की आत्मकथा - कागज़ी है पैरहन) शायद बचपन की इन्हीं अनुभूतियों को कलात्मकता के साथ वो अपनी फिल्म #The_kid में जगह-जगह प्रस्तुत कर रहे थे। फ़िल्म एक ऐसे बच्चे की कथा कहती है जिसे माँ-बाप त्याग देते हैं।
चार्ली अपनी फिल्मों में अद्भुत विम्बों का प्रयोग करते हैं। अगर आपने उनकी फिल्म #The_Kid देखी हो तो याद कीजिए फ़िल्म का पहला ही शॉट, आपको चार्ली की अद्भुत परिकल्पना का अंदाज़ा स्वतः ही हो जाएगा। फ़िल्म इस टाइटल से शुरू होती है - A picture with smile - and perhaps, a tear. अर्थात् चार्ली आंसू और मुस्कुराहट को एक साथ मिलाकर सिनेमा बना रहे हैं। वैसे भी एक ही बात किसी के लिए ट्रैजडी होती है तो किसी के लिए कॉमेडी। सड़क पर चलता हुआ आदमी फिसलकर गिर पड़ता है और देखनेवाले मुस्कुरा देते हैं। गिरनेवाले के लिए यह ट्रेजडी है लेकिन देखनेवाले के लिए कॉमेडी।
तो बात हो रही थी बिम्ब की। कोई भी कला एक रेखकीय अच्छी नहीं लगती बल्कि उसे एक वृक्ष की तरह होना चाहिए जिसमें कई जड़ें, तना, पत्तियां और फूल आदि होते हैं। वैसे भी फ़िल्म केवल संवाद या कहानी फ़िल्माने की कला नहीं है बल्कि वो अपने चलती फिरती इमेज के द्वारा भी फ़िल्म को महाकाव्य में परिवर्तित करती है।
किसी चैरिटी हॉस्पिटल से अपने नवजात शिशु को लेकर एक माँ निकलती है। एक दोराहे पर आके खड़ी हो जाती है फिर एक तरफ चल देती है और अगले शॉट में यीशु मसीह अपनी पीठ पर क्रॉस लादे दिखाते हैं। अब इन दोनों इमेज से चार्ली क्या कहना चाहते हैं यदि यह समझ मे नहीं आया तो हम चार्ली की कोई भी फ़िल्म देखने के लिए अभी नादान हैं। हमें कला का असली आनंद लेने के लिए कलात्मक रूप से शिक्षित होना होगा।
The Kid एक बच्चे को पैदा करने और पालनेवाले की कहानी है। जिसे महाभारत कृष्ण और कर्ण तथा बर्तोल्त ब्रेख़्त खड़िया के घेरे के माध्यम से उठाते हैं और चार्ली चैप्लिन चुपचाप वो कथा बड़ी ही शालीनता से कहते हैं; वो भी बिना जजमेंटल हुए।
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